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25 साल का वो 'श्राप' जो कोई CM तोड़ नहीं पाया: क्या है उत्तराखंड का 'काला सच'

जानें 11 मुख्यमंत्रियों के गिरने का काला सच। हॉर्स-ट्रेडिंग, गुटबाजी और दिल्ली के 'रिमोट कंट्रोल' वाले 4 बड़े पैटर्न। क्या पुष्कर धामी इतिहास बदलेंगे?

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नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । देवभूमि उत्तराखंड, जहां की राजनीति में कोई भी मुख्यमंत्री अपने पहले साल की गारंटी नहीं ले सकता। साल 2000 से 2025 के बीच, हर नई सरकार पहले 12 से 18 महीनों में ही क्यों हिल जाती है? यह महज़ संयोग नहीं, बल्कि एक खतरनाक पैटर्न है, जिसमें न कांग्रेस बच पाई और न ही भाजपा। यंग भारत न्यूज के इस एक्सप्लेनर में हम उत्तराखंड की राजनीति के उस कड़वे सच से पर्दा उठाएंगे, जिसके 4 सबसे बड़े 'पैटर्न' यहां की अस्थिरता का कारण हैं। क्या है उत्तराखंड की राजनीति का रहस्य वो 25 साल, 11 मुख्यमंत्री और क्यों अधूरा रह जाता है पहला साल?

जी हां! उत्तराखंड, जिसे हम देवभूमि और पर्यटन के लिए जानते हैं, वह पिछले 25 वर्षों से राजनीतिक अस्थिरता का पर्याय बन चुका है। राज्य के इतिहास में सिर्फ कांग्रेस के नारायण दत्त तिवारी ही एक ऐसे मुख्यमंत्री रहे, जिन्होंने अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा किया। बाकि 10 में से 8 मुख्यमंत्रियों के लिए कुर्सी का पहला साल 'अग्निपरीक्षा' से कम नहीं रहा।

आंकड़े चौंकाने वाले हैं, उत्तराखंड में जितनी भी सरकारें गिरी हैं, उनमें से 73 परसेंट सरकारें पहले 18 महीने के अंदर ही ढह गईं। यह किसी 'श्राप' या 'मिथक' जैसा लगता है, लेकिन असल में यह एक सिस्टमैटिक कमजोरी है, जिसे हमें वैज्ञानिक तरीके से समझना होगा।

तीरथ सिंह रावत 116 दिन का कार्यकाल, कुर्सी गई कानून से राजनीतिक ड्रामे की बात करें तो, तीरथ सिंह रावत सबसे कम समय सिर्फ 116 दिन तक मुख्यमंत्री रहे। उनकी कुर्सी जाने की वजह जानकर आप हैरान रह जाएंगे। वह राज्यसभा सदस्य थे और कानून के मुताबिक, 6 महीने के अंदर उन्हें विधानसभा का उपचुनाव जीतना था। कोरोना महामारी के कारण उपचुनाव नहीं हो पाए और कानून ने उन्हें पद छोड़ने पर मजबूर कर दिया।

हरीश रावत से जब एक जज ने पूछा – 'कल तक आपकी सरकार थी?'

कांग्रेस के दिग्गज नेता हरीश रावत की सरकार का गिरना किसी बॉलीवुड थ्रिलर से कम नहीं था। रातों-रात 9 कांग्रेसी विधायक पाला बदलकर भाजपा के साथ चले गए और सरकार अल्पमत में आ गई। जब मामला हाईकोर्ट पहुंचा, तो जज साहब का सवाल था, “क्या आप आश्वस्त हैं कि कल तक आपकी सरकार थी?” यह सीन उत्तराखंड की हॉर्स-ट्रेडिंग की राजनीति का कड़वा सच दिखाता है।

त्रिवेंद्र सिंह रावत का हटना 'जनता का गुस्सा' या 'दिल्ली का आदेश'?

2021 में त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाने की आधिकारिक वजह 'जनता में गुस्सा' बताया गया। लेकिन अंदरूनी खबर यह थी कि केंद्रीय हाईकमान को डर था कि उनके चेहरे पर 2022 का चुनाव हार जाएंगे। दिल्ली से आए एक फोन कॉल ने मुख्यमंत्री को बदलवा दिया। इसके बाद, तीरथ सिंह रावत आए, 116 दिन में गए, और फिर पुष्कर सिंह धामी को कमान मिली। सिर्फ 8 महीनों के अंदर 2 मुख्यमंत्री बदल दिए गए— यह दिल्ली के रिमोट कंट्रोल का स्पष्ट प्रमाण है।

25 साल का डेटा एनालिसिस क्यों टूटती है हर सरकार? 4 सबसे बड़े पैटर्न

Young Bharat News Team ने 25 साल के राजनीतिक डेटा का गहन विश्लेषण किया है और पाया है कि हर सरकार के पहले साल टूटने के पीछे 4 मुख्य, पैटर्न-आधारित कारण हैं।

  1. गुटबाजी का ज़हर 45% संकट की जड़: उत्तराखंड में पार्टी से ज़्यादा गुटबाज़ी हावी है। केस स्टडी बताती है कि 45% से अधिक राजनीतिक संकट गुटबाज़ी से पैदा हुए हैं।
  2. क्षेत्रीय विभाजन गढ़वाल vs कुमाऊं की खींचतान:
    ठाकुर vs ब्राह्मण का वर्चस्व व आंतरिक विद्रोह हर पार्टी में हमेशा 3 से 4 बड़े गुट सक्रिय रहते हैं, जो मुख्यमंत्री को चैन से काम नहीं करने देते। जब भी कोई मुख्यमंत्री पद पर बैठता है, पार्टी के अंदर ही उसके खिलाफ 'शतरंज की बिसात' बिछनी शुरू हो जाती है।
  3. छोटी विधानसभा = आसान हॉर्स ट्रेडिंग: उत्तराखंड विधानसभा में सिर्फ 70 विधायक हैं, जो हॉर्स-ट्रेडिंग विधायकों की खरीद-फरोख्त के लिए एक आसान मैदान है। सिर्फ 5 से 6 विधायक तोड़ने से सरकार खतरे में आ जाती है। देश में यह पैटर्न गोवा, मणिपुर, कर्नाटक के बाद उत्तराखंड उन राज्यों में नंबर 1 पर है, जहां छोटी विधानसभाएं राजनीतिक अस्थिरता का बड़ा कारण बनती हैं।
  4. दिल्ली का रिमोट कंट्रोल, लोकल लीडरशिप पंगु: उत्तराखंड के मुख्यमंत्री अक्सर दिल्ली के इशारों पर चलते हैं। 80% मुख्यमंत्री परिवर्तन दिल्ली के केंद्रीय नेतृत्व के सीधे आदेश पर हुए हैं। लोकल लीडर्स को अपने हिसाब से काम करने का मौका नहीं मिलता, जिससे ज़मीनी स्तर पर जनता की उम्मीदें पूरी नहीं हो पातीं।

पहला साल = 'टेस्टिंग पीरियड'

हाईकमान के लिए मुख्यमंत्री का पहला साल एक 'टेस्टिंग पीरियड' होता है।

प्रदर्शन की निगरानी: पार्टी हाईकमान देखती है कि मुख्यमंत्री को जनता कितना पसंद कर रही है।

जीरो टॉलरेंस: थोड़ा-सा भी बैकलैश या जनता में गुस्सा दिखा, तो चेहरा तुरंत बदल दिया जाता है। यह अस्थिरता की सबसे बड़ी वजह है।

क्या पुष्कर सिंह धामी तोड़ पाएंगे 25 साल का 'श्राप'?

2025 में, एक मुख्यमंत्री ने इस 25 साल के अस्थिरता के मिथक को तोड़ने की कोशिश की है। पुष्कर सिंह धामी की कहानी थोड़ी अलग है। वह 2021 में आए, 2022 में भाजपा को जीत दिलाकर दोबारा मुख्यमंत्री बने हालांकि अपनी सीट हार गए थे। उन्होंने समान नागरिक संहिता UCC को लागू करने की दिशा में बड़ा कदम उठाया और 55000 से अधिक सरकारी नौकरियां देने का दावा किया। महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके खिलाफ अभी तक कोई बड़ा और संगठित आंतरिक विद्रोह या 'रिबेलियन' देखने को नहीं मिला है।

उत्तराखंड के 'आयरन मैन' बनने की राह?

सबसे बड़ा सवाल अब यही है कि क्या पुष्कर सिंह धामी उत्तराखंड के 'आयरन मैन' बनकर उभरेंगे? क्या वह 2027 तक टिके रहेंगे? एक बात तय है यदि धामी 2027 तक अपना कार्यकाल पूरा करने में सफल होते हैं, तो वह उत्तराखंड के इतिहास में नारायण दत्त तिवारी के बाद सबसे पावरफुल मुख्यमंत्री बन जाएंगे। यह जीत सिर्फ उनकी नहीं, बल्कि उत्तराखंड की राजनीति में स्थिरता की भी होगी।

आप क्या सोचते हैं? क्या यह 25 साल का श्राप खत्म होगा? या फिर 2027 से पहले वही पुराना खेल शुरू हो जाएगा? कमेंट बॉक्स में अपनी राय ज़रूर दें 'धामी टिकेगा' या 'धामी फिर गिरेगा'?

उत्तराखंड, देवभूमि है, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता का राज्य भी। 25 साल, 11 मुख्यमंत्री, करोड़ों सपने... और हर बार पहले साल टूट जाते हैं।

अब फैसला उत्तराखंड की जनता और नेताओं को करना है- क्या हम फिर वही गलतियां दोहराएंगे? या इस बार इस खतरनाक पैटर्न को खत्म करेंगे?


Ajit Kumar Pandey

Ajit Kumar Pandey

पत्रकारिता की शुरुआत साल 1994 में हिंदुस्तान अख़बार से करने वाले अजीत कुमार पाण्डेय का मीडिया सफर तीन दशकों से भी लंबा रहा है। उन्होंने दैनिक जागरण, अमर उजाला, आज तक, ईटीवी, नवभारत टाइम्स, दैनिक हिंट और दैनिक जनवाणी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में फील्ड रिपोर्टिंग से लेकर डेस्क तक अपनी सेवाएं दीं हैं। समाचार लेखन, विश्लेषण और ग्राउंड रिपोर्टिंग में निपुणता के साथ-साथ उन्होंने समय के साथ डिजिटल और सोशल मीडिया को भी बख़ूबी अपनाया। न्यू मीडिया की तकनीकों को नजदीक से समझते हुए उन्होंने खुद को डिजिटल पत्रकारिता की मुख्यधारा में स्थापित किया। करीब 31 वर्षों से अधिक के अनुभव के साथ अजीत कुमार पाण्डेय आज भी पत्रकारिता में सक्रिय हैं और जनहित, राष्ट्रहित और समाज की सच्ची आवाज़ बनने के मिशन पर अग्रसर हैं।

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