Bihar: 10000 रूपए और साइकिलें नहीं, बेटियों को चाहिए 'मायके की गारंटी'
बिहार में रोहिणी आचार्य ने क्यों बेटियों के लिए 'मायके की गारंटी' की मांग की। क्या योजनाएं महिलाओं को सशक्त करने में विफल हैं?

नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । बिहार में लड़कियों को 10000/- रूपए की नकद राशि या साइकिलें देने जैसी सरकारी योजनाएं, महिलाओं के सशक्तिकरण के बड़े सवाल पर अपर्याप्त साबित हो रही हैं। रोहिणी आचार्य के हालिया 'X' पोस्ट ने पितृसत्तात्मक समाज के मूल मुद्दे को उठाया है हर बेटी को यह संवैधानिक अधिकार मिलना चाहिए कि मायका उसका सुरक्षित ठिकाना हो, जहां वह बिना डर, शर्म या किसी स्पष्टीकरण के लौट सकें।
यह केवल एक भावनात्मक मांग नहीं, बल्कि शोषण रोकने और समान अधिकार सुनिश्चित करने का एक ठोस सरकारी उपाय है। भारत में, खासकर बिहार जैसे राज्यों में, महिला सशक्तिकरण की बहस अक्सर 'योजनाओं' और 'सब्सिडी' के इर्द-गिर्द घूमकर रह जाती है। 10000/- रूपए देना या स्कूल जाने के लिए साइकिल बांटना नेक नीयत से शुरू किए गए कदम हैं, लेकिन क्या ये वाकई एक महिला को उस पितृसत्तात्मक ढांचे से आज़ाद कर सकते हैं जो उसके जीवन का हर फ़ैसला नियंत्रित करता है?
हक़ीकत इससे कोसों दूर है असल चुनौती इन सतही उपायों में नहीं, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक उदासीनता में गहरी जड़ें जमा चुकी हैं। जब एक बेटी को ससुराल में उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, तो उसके पास सुरक्षित आश्रय की कानूनी और सामाजिक गारंटी नहीं होती। उसे हमेशा यह चिंता सताती है कि क्या वह मायके में 'बोझ' बनेगी या उसे 'शर्मिंदगी' का कारण माना जाएगा। यह डर ही उसे चुप्पी साधने और शोषण सहने पर मजबूर करता है।
मायके की गारंटी एक क्रांतिकारी विचार
रोहिणी आचार्य की मांग केवल एक भावनात्मक इच्छा नहीं है, बल्कि यह महिलाओं को उनका 'समान अधिकार' दिलाने की दिशा में एक ठोस प्रशासनिक दायित्व है। इस विचार का मूल यह है कि बेटियों के लिए उनका मायका एक ऐसा स्थान बने जहां सुरक्षित वापसी का अधिकार किसी भी स्थिति में, खासकर संकट के समय, वह बिना किसी को कारण बताए वापस आ सकें।
कोई अपराधबोध नहीं: बेटी को यह महसूस न कराया जाए कि वह परिवार पर बोझ बन गई है।
दोषमुक्त माहौल: ससुराल से लौटने पर उसे ही दोषी ठहराने की बजाय, उसे सुरक्षा और समर्थन मिले।
यह उपाय महिलाओं को सामाजिक सुरक्षा की एक अभूतपूर्व परत प्रदान करेगा। जैसे ही शोषण करने वाले को यह पता चलेगा कि महिला के पास लौटने और कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए एक मजबूत, सुरक्षित आधार है, उत्पीड़न के मामलों में स्वतः कमी आनी शुरू हो जाएगी।
पितासत्ता की गहरी जड़ें बिहार को क्या बदलना होगा?
बिहार में पितृसत्तात्मक मानसिकता राजनीतिक और सामाजिक दोनों क्षेत्रों में व्यापक बदलाव की मांग करती है। केवल महिलाओं को आगे बढ़ाने की बात करना काफ़ी नहीं है। सरकार और समाज का प्राथमिक कर्तव्य व्यवस्थागत मुद्दों को हल करना है।
ज़रूरी बदलाव कानूनी सुरक्षा: 'मायके की गारंटी' को सामाजिक मान्यता के साथ-साथ कानूनी समर्थन भी मिलना चाहिए।
जन जागरूकता: मायके में बेटियों को समान दर्जा देने के लिए व्यापक अभियान चलाना होगा, ताकि परिवार खुद इस बदलाव को स्वीकार करें।
राजनीतिक इच्छाशक्ति: महिलाओं के मुद्दों को चुनावी घोषणापत्रों से निकालकर प्रशासन की प्राथमिकताओं में लाना होगा।
आज भारत को ऐसी नीतियों की आवश्यकता है जो महिला को एक 'लाभार्थी' नहीं, बल्कि एक 'समान अधिकार वाली नागरिक' माने। जब तक मायका हर बेटी के लिए बिना शर्त वाला सुरक्षित ठिकाना नहीं बन जाता, तब तक 10000/- रुपये या साइकिलें केवल एक अल्पकालिक राहत भर होंगी, स्थायी सशक्तिकरण नहीं।
अब समय आ गया है कि बेटियों को 'तोहफ़े' नहीं, बल्कि उनके मूलभूत हकों की गारंटी दी जाए।


